Friday, July 31, 2015

कश्ती एक जरिया


कश्तियों तक
खुद को न समेट ऐ मुसाफिर,
यह सफ़र है समन्दर का
और तेरी कश्ती एक जरिया।
और ऐसे सफ़र पर
साहिल की बात करना ...
एक बेईमानी है।

.....अनिल कुमार 'अलीन'

तालीम लेकर लोग बेकार बैठे हैं,
घर-घर में लोग बेरोजगार बैठे हैं,
शराफ़त की तन पर ओढ़े हुए चादर,
बड़ी आस लगाए होशियार बैठे हैं.
दूसरों की खबर नहीं अपनी गरज लिए,
अब शहर और गलियों में बेशुमार बैठे हैं,
काफिलो सी आज गुजरी है जिंदगी,
चौखट पे दस्तक दिए हजार बैठे हैं,
कहने को है बहुत पर कैसे कहे कोई,
गर्दन के ऊपर अब तो तलवार बैठे हैं,
एक बात तुमसे कहनी है हमको ‘अलीन’
एक अनार पर हजार बीमार बैठे हैं

……….०६/१२/२००४ अनिल कुमार ‘अलीन’

Tuesday, July 14, 2015

कोई असर नहीं होता।

1.
अपनी हमदर्दी अपने पास बचाकर रखो यारो,
दर्द कहते हैं जिसे उसका कोई घर नहीं होता।
जब तलक हैं साथ मेरे, मेरा दर्द ही अपना हैं,
परायी चीज का इस पर कोई असर नहीं होता।
..............अनिल कुमार 'अलीन'..............
2.
मेरे दर्द ने मुझको मुझसे मिला दिया 'अलीन',
दुआ लबों से भी रूठ जाए तो कोई गम नहीं|
मुद्दतों बाद पिघला हैं यह जज्बात-ए-हिमखंड,
सारी कायनात भी डूब जाये तो कोई गम नहीं।
...............'अनिल कुमार अलीन'..............


मैं वह मुसाफिर हूँ

मैं वह मुसाफिर हूँ जो राही को राह दिखाते-दिखाते अपना रास्ता भूल गया.....अनिल कुमार 'अलीन'

 

उछाल तो दूँ सूरज को

उछाल तो दूँ सूरज को एक ठोकर से अपने 'अलीन'
पर तेरी तरह लोगों को अंधेरो की आदत नहीं
.............अनिल कुमार 'अलीन'................


तुम्हारा भागवान

 

तुम्हारा भागवान तुम्हारी तरह गूँगा-बहरा हैं,
तड़पते दिल की सदा उस तक नहीं जाती।
...........अनिल कुमार 'अलीन'..............

Monday, July 13, 2015

क्या दिन थे वे भी

1.
क्या दिन थे वे भी भीग जाते थे बारिश से,
अब दिन हैं ये भी जल उठते हैं बारिश से।
 2.
यह वही मौसम हैं, बारिश है और मैं भी 'अलीन'
पर खुद को छुपाता जिससे वो मेरा छत नहीं।
3.
अब तो जी में आता है कूद मरु इस बालकनी से,
बारिश भी पराया हुआ जो कभी अपना था.

3.
अब तो मेरे दुःख, मेरे दर्द ही अपने हैं 'अलीन'
वो साँसे छोड़ गयी बाबू जी को जिसे जपना था।

                                                        
     .. ....अनिल कुमार 'अलीन'.......

Sunday, July 12, 2015

माँगना गर है


माँगना गर है तो माँग खुदा से सर उठाकर तू
खुद को गिराकर यूँ हर किसी को सलाम मत कर।
चले हो सफ़र में तो बारिश भी होगी और तूफान भी
मंज़िल पाने से पहले अपना मुकद्दर किसी के नाम मत कर।
खुद को गुनाहगार न समझ मुझ तक आते-आते,
यह जो साजिश है अंधेरों की उसे सरेआम मत कर।
सर की छत जो टूटकर आ गयी तेरे हाथों में,
इलज़ाम अपना मासूम परिंदों के नाम मत कर।
बड़ी मुश्किल से निकलते हैं लोग यहाँ अपने घरों से,
मुझे बेघर ही रहने दे कोई कोई छत नाम मत कर।
.........अनिल कुमार 'अलीन'.....

Friday, July 10, 2015

उस पार का मुसाफिर इस पार तक आया।

उस पार का मुसाफिर इस पार तक आया।

माझी को ढूढ़ता हुआ मझधार तक आया।

बेशक होगा डूबते को तिनके का सहारा

यहाँ मैं कश्ती भी पाकर मार तक आया।

......Missing my father........
....अनिल कुमार 'अलीन'.....

बारिश तुम्हारे छत की भी कोई कम तो न थी


 बारिश तुम्हारे छत की भी कोई कम तो न थी,

जी भर न सका तेरा, भला नशीब क्या करता?

रोक न सका टपकते हुए शज़र से बूंदों को तू ,

गर बह गया आँगन से, भला हबीब क्या करता?

किसके-किसके नशीबों से खुद को कोसेगा तू,...
गर चाह मरने की है फिर रकीब क्या करता ?....