१.
इन बहारों से इतनी दिल्लगी क्यों।
जब उम्मीदें वफ़ा नहीं रखते।
२.
जब हरेक पतझड़ के बाद बहार आनी है।
फिर क्यों न दरख्तों दीवार बदलतें यारों.
३.
वो साहस ही क्या जो मौसम का मिजाज़ न देख सके।
हमने तो बंजर भूमि में अंकुरित बीजों को देखा है।
4.
वो साहस ही क्या जो मौसम का मिजाज़ न देख सके।
हमने तो बंजर भूमि में अंकुरित बीजों को देखा है।
5.
होरी का भटकना इस बात का साक्षी है कि जीवन उसमे बाकी है
वरना मौसम के भय से मिटटी में दफन हो जाना.
6.
फूल बने ही है खिलने, मुस्कुराने और गिर मिटटी में मिल जाने को
ताकि फिर से किसी पौधे की मुस्कान बन सके।
. ..........अनिल कुमार 'अलीन'..........
इन बहारों से इतनी दिल्लगी क्यों।
जब उम्मीदें वफ़ा नहीं रखते।
२.
जब हरेक पतझड़ के बाद बहार आनी है।
फिर क्यों न दरख्तों दीवार बदलतें यारों.
३.
वो साहस ही क्या जो मौसम का मिजाज़ न देख सके।
हमने तो बंजर भूमि में अंकुरित बीजों को देखा है।
4.
वो साहस ही क्या जो मौसम का मिजाज़ न देख सके।
हमने तो बंजर भूमि में अंकुरित बीजों को देखा है।
5.
होरी का भटकना इस बात का साक्षी है कि जीवन उसमे बाकी है
वरना मौसम के भय से मिटटी में दफन हो जाना.
6.
फूल बने ही है खिलने, मुस्कुराने और गिर मिटटी में मिल जाने को
ताकि फिर से किसी पौधे की मुस्कान बन सके।
. ..........अनिल कुमार 'अलीन'..........
No comments:
Post a Comment