Tuesday, June 9, 2015

वो निहायत ही झूठे है व मक्कार है


१.
क्योंकर यह सितम तुम्हारे साथ होना था,
कि तुम्हारे घर पे आग की वर्षात होना था।
कभी मिले वो मगरूर बदल तो पूंछेंगे,
प्यासी भूमि पे क्या यही इन्साफ होना था?

२.
गर यकीं है खुद बहुत
तो चलो बादलो को ललकार आये।
कि हम सीने पे नहीं दिल पे खाएंगे
बशर्ते वो आग नहीं
अबकी बार शोला बनकर आये।

३.
बड़ी आस लिए फिरते हो उसके साथ का,
बड़े नादाँ हो जो खुद पे भरोसा छोड़ आये हो।

४.
सब कुछ हार के मुहब्बत में जो निःशब्द हो गए,
उनकी ख़ामोशी ही जुबां है गर पढ़ सको तो पढ़ो।
कहाँ तक लाज़िम हैं उन्हें बेवफा कहना अलीन,
दिल की बाते हैं दिल से समझ सको तो पढ़ो।

५.
आ मिल ले जो मुझसे मिलने की ख्वाइश है,
तुम्हारी नहीं, यह वक्त की आजमाइश है।
ख्याल जो भी पाल रखा है मुझको लेकर,
सफ़ेद झूठ है न सच की कोई गुन्जाइश है।
६.
मुझे देखकर जाती रहेगी गलत फहमी तेरी।
अबतलक लोगों को मिलकर मुझसे 
एक बस यही बात समझ आई है।
अलीन कोई कयामत है या फिर
कोई बला आई है।
लाख कर ले जतन मुझे जकड़ने की,
कहाँ कोई परछाई पकड़ में आई है।
बिछा ले तेरे जी में आये जितने प्यादे,
एक चाल हूँ ऐसा जो अब तक समझ न आई है.

७.
कभी दर्द बेचकर हमने दवा खरीदनी चाही।
सुबह से शाम हो गयी और
फिर युहीं जिंदगी तमाम हो गयी,
न गुजरा इधर से कोई खरीददार न कोई राही।

८. 
वो दर्द अपना बेचने को अब भी तैयार है,
बशर्ते बिना दर्द का कोई खरीदार हो।
वो निहायत ही झूठे है व मक्कार है, 
जो कहते हैं एक अलीन ही यहाँ बीमार है।

९. 
क्या कहते हो मियां.....
फिर तो यक़ीनन उसकी जान पर आई है
तबियत का मारा है जो ख़ामोशी छाई है।

१०.
मुझे यकीं था तुममे से कोई आएगा,
पत्थर मारकर घर में छुप जायेगा।

११. 
अब हमने भी ठान रखी है
कि आग पर अपनी जान रखी है।
देखता हूँ कब तक छिपेगा अपने शीशे के मकां  में,
अब तो हाथों में हमने पत्थर उठा रखी है।

१२.
अब हमने भी ठान रखी है
कि आग पर अपना आन रखी है।
देखता हूँ कब तक छिपेगा अपने शीशे के घर में,
अब तो हाथों में हमने पत्थर उठा रखी है।

१३.
मैं तो कुछ और ही हूँ जबकि कुछ और तू समझ बैठा,
हाय अल्लाह तूने धधकते आग को पानी समझ बैठा।

१४.
अभी लूट हमारी देखी ही कहाँ हैं तूने,
जिधर से गुजरता हूँ वो बस्ती कभी बसती नही।
……....... अनिल कुमार 'अलीन'………… 

No comments:

Post a Comment