खिड़कियाँ आज भी खुलती हैं,
पर वो पहले वाली बात कहाँ?
वो एक हशीन रात थी,
अब मेरे नशीब में वैसी रात कहाँ ?
यूं तो मिलने को रोज मिलते हैं,
तबियत मिले वो मुलाकात कहाँ ?
फ़र्क दिन-रात का हुआ मुश्किल है,
सुकून से सो सकू वो रात कहाँ ?
क्योंकर सुनेंगे किस्से दादी-नानी के,
आज के बच्चों में ज़ज्बात कहाँ ?
मौजूदा दौड़ में सभी दुल्हें हैं,
साथ चल सके अब वो बारात कहाँ ?
...... ....... सूफ़ी ध्यान श्री
पर वो पहले वाली बात कहाँ?
वो एक हशीन रात थी,
अब मेरे नशीब में वैसी रात कहाँ ?
यूं तो मिलने को रोज मिलते हैं,
तबियत मिले वो मुलाकात कहाँ ?
फ़र्क दिन-रात का हुआ मुश्किल है,
सुकून से सो सकू वो रात कहाँ ?
क्योंकर सुनेंगे किस्से दादी-नानी के,
आज के बच्चों में ज़ज्बात कहाँ ?
मौजूदा दौड़ में सभी दुल्हें हैं,
साथ चल सके अब वो बारात कहाँ ?
...... ....... सूफ़ी ध्यान श्री
बहुत खूब
ReplyDeleteमौजूदा दौड़ में सभी दुल्हें हैं,
ReplyDeleteसाथ चल सके अब वो बारात कहाँ ?
- यही है आज की वस्तु स्थित सुन्दर रचना.
बढ़िया
ReplyDeleteअच्छे विचार
ReplyDeleteआखरी पंक्तियाँ बहुत ही मौजू हैं,
ReplyDeleteशब्द सुधार। नसीब , नशीब नही
हसीन हशीन नही , शुक्रिया