Saturday, August 19, 2017

खिड़कियाँ आज भी खुलती हैं

खिड़कियाँ आज भी खुलती हैं,
पर वो पहले वाली बात कहाँ?

वो एक हशीन रात थी,
अब मेरे नशीब में वैसी रात कहाँ ?

यूं तो मिलने को रोज मिलते हैं,
तबियत मिले वो मुलाकात कहाँ ?

फ़र्क दिन-रात का हुआ मुश्किल है,
सुकून से सो सकू वो रात कहाँ ?

क्योंकर सुनेंगे किस्से दादी-नानी के,
आज के बच्चों में ज़ज्बात कहाँ ?

मौजूदा दौड़ में सभी दुल्हें हैं,
साथ चल सके अब वो बारात कहाँ ?

                   ...... ....... सूफ़ी ध्यान श्री

5 comments:

  1. मौजूदा दौड़ में सभी दुल्हें हैं,
    साथ चल सके अब वो बारात कहाँ ?
    - यही है आज की वस्तु स्थित सुन्दर रचना.

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  2. आखरी पंक्तियाँ बहुत ही मौजू हैं,
    शब्द सुधार। नसीब , नशीब नही
    हसीन हशीन नही , शुक्रिया

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